मंगलवार, 30 जून 2020

हाथ उठाओ

सुनो तुम छिप कर रहना
अपना चेहरा न किसी को दिखाना 
अगर सामने है आना
तो हथियार साथ ज़रूर लाना

इस भ्रम में न रहना की 
ये मर्दों का समाज है
हर गली-मोहल्ले, चौराहे पर
सिर्फ नामर्दों की जमात है

मिलेगा कोई हज़ार में
एक मर्द
गीदडों के बीच शेर सा फंसा हुआ
सिर्फ उस एक के भरोसे भी बाहर न आना

अपना स्वाभिमान अगर है बचाना
तो खुद ऐसे हैवानों के खिलाफ
काली या दुर्गा बन कर बाहर आना
रक्त पात से तुम कतई न घबराना

वीर, शौर्य, साहस सब तुम से जन्म पाते हैं
इन नाली के गंदे कीड़ों को मसलने में देर न लगाना
जिस वक्त तुम्हारे हाथों इनका संघार होगा 
वही वक्त इनकी नस्ल का काल होगा

इसके लिए सीखनी होगी कला आत्म रक्षा की
सिर्फ वार से सुरक्षा की
क्योंकि गुहार इनको समझ नहीं आती 
समस्या ये है कि समाज को भी इन पर शर्म नहीं आती

शर्म आए भी कैसे 
दरवाज़े सारे उसके बंद है
नपुंसक हम हमाम में आधे से ज़्यादा नंगे हैं
अपने ज़हन के अंधेरे कमरों में सबने दामन चीरे हैं

कब तक ख़ुद की आज़ादी का मोल चुकाओगी
कब तक सब से गुहार लगाओगी 
तुम कब खुद के लिए अपना हाथ उठाओगी
तुम कब खुद के लिए अपना हाथ उठाओगी

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