एक रोज़ सफ़र में एक साथी मिला
बिन कुछ कहे मीलों तक चला
राह में एक मोड़ पर मैंने पूंछा
मेरा सफ़र लंबा है कहां तक आओगी
धूप भी तेज़ है
कब तक ख़ुद को तपाओगी
मैं तो पैदल हूं
और मंज़िल का भी पता नहीं
रास्ते संकरे हैं
कंटक भरे
तुम कमल सी कोमल हो
शिशु सी नाज़ुक
कब तक ख़ुद को जलाओगी
इन तेज़ गर्म हवाओं में बीमार हो जाओगी
देखो मुसाफ़िर और भी हैं राहों में
जो अपनी राहें तुम्हारे लिए बिछादेंगे
तुम नज़र घुमाओगी और ये
इन राहों पर ही जाम लगा देंगे
पहले वो थोड़ा झल्लाई
उसके तपते लाल चेहरे से घुर्राई
मुझे लगा की अब चिल्लाई
पर वो होले से मुसकाई
और बोली...
पगलू हो तुम कौन तुम्हे समझाए
साथ तुम्हारा अच्छा है ये मुसाफ़िर मुझको भाए
क्यों हर बार तुम यही राग सुनाते हो
कुछ दूर चलते ही फिर शुरू हो जाते हो
खुशियों का साथ तुम को भाता नहीं है क्या
साथी से बात कैसे करते है, ये भी तुमको आता नहीं है हां
अबकी कुछ बोला तो सच में गुस्सा हो जाऊंगी
लेकिन खुश ना होना चिपक हूं मैं छोड़ कर नहीं जाऊंगी
चलो अब तुमको इन रास्तों पर ऐसे ही सताऊंगी
रास्ता लंबा हुआ तो क्या मुझसे पीछा छुड़ाओगे
कहां तक तुम जाओगे
कब तक पीछा छुड़ाओगे
मैं तो साथ ही आऊंगी
मैं तो साथ ही आऊंगी...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें