मंगलवार, 12 मई 2020

मेरा साथी

एक रोज़ सफ़र में एक साथी मिला
बिन कुछ कहे मीलों तक चला

राह में एक मोड़ पर मैंने पूंछा
मेरा सफ़र लंबा है कहां तक आओगी

धूप भी तेज़ है
कब तक ख़ुद को तपाओगी

मैं तो पैदल हूं 
और मंज़िल का भी पता नहीं
रास्ते संकरे हैं
कंटक भरे

तुम कमल सी कोमल हो
शिशु सी नाज़ुक

कब तक ख़ुद को जलाओगी
इन तेज़ गर्म हवाओं में बीमार हो जाओगी

देखो मुसाफ़िर और भी हैं राहों में
जो अपनी राहें तुम्हारे लिए बिछादेंगे

तुम नज़र घुमाओगी और ये 
इन राहों पर ही जाम लगा देंगे

पहले वो थोड़ा झल्लाई
उसके तपते लाल चेहरे से घुर्राई

मुझे लगा की अब चिल्लाई
पर वो होले से मुसकाई
और बोली...
पगलू हो तुम कौन तुम्हे समझाए
साथ तुम्हारा अच्छा है ये मुसाफ़िर मुझको भाए

क्यों हर बार तुम यही राग सुनाते हो
कुछ दूर चलते ही फिर शुरू हो जाते हो

खुशियों का साथ तुम को भाता नहीं है क्या
साथी से बात कैसे करते है, ये भी तुमको आता नहीं है हां

अबकी कुछ बोला तो सच में गुस्सा हो जाऊंगी
लेकिन खुश ना होना चिपक हूं मैं छोड़ कर नहीं जाऊंगी

चलो अब तुमको इन रास्तों पर ऐसे ही सताऊंगी
रास्ता लंबा हुआ तो क्या मुझसे पीछा छुड़ाओगे

कहां तक तुम जाओगे 
कब तक पीछा छुड़ाओगे

मैं तो साथ ही आऊंगी
मैं तो साथ ही आऊंगी...

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