जब भी कोई मुझसे सवाल पूछता है कि मैं कौन और कहां से आया हूं, मतलब कहां का रहने वाला हूं तो यह सवाल मुझे बहुत अखरता है।
अपनी मिट्टी अपने गांव को छोड़ना कैसा होता है... यह मैं ही जानता हूं। बेशक मैं जहां रहता था, वहां आए दिन नारे लगते थे, पथराव होते थे, गोलियों की आवाज़ें आती थी। लेकिन हमें आदत थी।
घाटी में जब बर्फ़ पडती थी, तो ऐसा लगता था कि आसमान से फ़रिश्ते सफेद फूल बरसा रहे हैं। लेकिन शायद उनके कानों तक गोलियों की आवाज नहीं पहुंचती थी... अगर पहुंचती तो वह ज़रूर कुछ करते ।
वो हमारा घर था। सच में जन्नत कहीं थी तो वहीं थी। 20 साल का था, जब पहली बार किसी लड़की को देखा और देखता रहा... सेब जैसे उसके गाल, लंबे गोल चेहरे पर उसकी बड़ी बड़ी आंखें... इतनी खूबसूरत लगती थी कि जैसे किसी चित्रकार ने अपनी ख़ास पेंसिल से उन्हें बनाया हो । इससे खूबसूरत आखें दुनिया में थी ही नहीं और उसकी आंखों पर वह एक बड़ा सा गोल चश्मा, जो पूरी शिद्दत से उसकी आंखों की रख़वाली करता था एक पहरेदार की तरह, खूबसूरती इतनी की घाटी की बर्फ भी उसके आगे सांवली सी नज़र आती थी ।
उसे देखते ही मेरे दिल में एम्बुलेंस की लाल बत्ती लुप-लुप करके जल उठती।
पहली बार उसे प्रोफ़ेसर सिद्दीकी के यहां देखा था, वो अक्सर जूनियर्स की कापियां जांचने के लिए मुझे बुला लिया करते थे।
अब तो रोज़ किसी न किसी बहाने से मैं सही वक्त पर पहुंच जाता था। थोड़ी देर उसे देखता, ट्यूशन खत्म होने का इंतजार करता और फिर उसे देख कर घर वापिस,
रात भर तकिए को सीने से लगा कर सोता था। धीरे धीरे सफ़ीना को भी मैं पसंद आने लगा था, उसकी पढाई में मदद करता था। शायद प्रोफ़ेसर साहब को भी अंदाज़ा हो गया था कि क्यों मैं रोज़ उनके घर पहुंच जाता हूं,पर प्रोफ़ेसर साहब इस बात को नज़रंदाज़ कर देते थे। धीरे-धीरे हम दोनों ने ही बाहर मिलना शुरू कर दिया, लेकिन एक दिन प्रोफ़ेसर साहब ने सफ़ीना और मेरी नज़दीकी को देखते हुए मुझे समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि, हम दोनों के मज़हब अलग-अलग हैं और घाटी में अगर हमारी नज़दीकी की भनक किसी को भी पड़ गई तो इसका कुछ भी अंजाम हो सकता है...अभी माहौल ठीक नहीं है, मुझे इस बारे में सोचना चाहिए। मैंने उनसे कहा कि सफ़ीना और मैं एक दूसरे के सिर्फ अच्छे दोस्त थे।
वो इज़हार करने से शायद डरती थी और मैं उससे डरता था कि कहीं वो मुझे ग़लत अर्थों में ना ले ले।
वो इज़हार करने से शायद डरती थी और मैं उससे डरता था कि कहीं वो मुझे ग़लत अर्थों में ना ले ले।
हवाएं गर्म हो रही थी और हमारे दिलों की धड़कनें भी ।
हमारी बिरादरी के लिए फरमान जारी हो गया था कि हमें यहां से जाना होगा। आए दिन पत्थरबाज़ी और नारों से हम भी तंग आ गए थे, लेकिन वहां से जाना नहीं चाहते थे। आए दिन खबरें आती थी कि आज इसे घर में घुस कर मार दिया, आज उसे मार दिया । माँ बताती थी कि उस की बीवी तो पेट से थी, उसका छोटा बच्चा था और ना जाने क्या क्या... पर हमें परवाह नहीं थी। हम तो अपनी तय जगह पर मिलने के लिए तय वक्त पर पहुंच जाते थे।
असल में हमें रोज़-रोज़ के शोर की आदत हो गई थी, गोली की आवाज से पता चल जाता था कि किस गन की है और कितनी दूर से चली है।
मैंने रास्ते में कुछ जंगली फूलों का गुलदस्ता बनाया और सोचा कि आज सफ़ीना को बोल दूंगा कि सफ़ीना मैं अपने रोज़-रोज़ मिलने वाले इस रिश्ते को एक नाम देना चाहता हूं। वो जैसे ही मेरे सामने आई मैं वो सब भूल गया जो मैंने तैयार किया था। मैं किसी और ही दुनिया में था, मैंने फूलों से भरा हुआ गुलदस्ता उसके आगे किया और कहा "हम रोज मिलते हैं हर हाल में, हम दोनों को एक दूसरे का साथ पसंद है, मैं... मैं तुमसे प्यार करता हूं सफ़ीना... और सफ़ीना एक दम से मेरी बाँहों में आ गिरी, एकदम निढाल होकर, मैं हम दोनों को सम्भाल नहीं पाया और हम दोनों गिर गए। वो मेरे ऊपर थी और मैं नीचे, मेरा हाथ उसकी पीठ पर गया तो उसकी पीठ गीली थी। अचानक मुझे एहसास हुआ कि आसपास गोलियां चल रहीं थी और एक गोली मेरे दाहिने कंधे पर भी लगी थी।अब एहसास हुआ था। सफ़ीना बेहोश हो गई थी, मैं उसे साथ लेकर एक पेड़ की आढ़ में छिप गया। सफ़ीना को जगाते-जगाते मैं पता नहीं कब बेहोश हो गया ।
होश आया तो मैं एक ट्रक की लॉरी में घर के कुछ सामान, मां और दोस्तों के साथ था। कुछ पड़ोस के लोग भी उसी लॉरी में थे। दोस्तों ने बताया कि सफ़ीना नहीं बची और जो थोड़ा बहुत सामान था वह लेकर उन्होंने मुझे और माँ को साथ ले लिया। मैंने वापिस जाने की बहुत कोशिश की लेकिन दोस्तों ने जाने नहीं दिया, फिर घर में मेरी अकेली माँ का मैं ही तो एक सहारा था। अगर मैं भी चला जाता तो परदेस में माँ का ख्याल कौन रखता।
हम दिल्ली आए एक पुल के नीचे झुग्गी डाली और रहने लगे। सफ़ीना की याद मुझे बार-बार वहीं अपने पास बुलाती थी, लेकिन पता था कि सफ़ीना अब वहां नहीं है।
फिर 11 महीने बाद साल 1951में सफीना मुझे दिखाई दी, वहीं पास ही की एक झोपड़ी में।
मुझे यकीन नहीं हुआ कि मेरी सफ़ीना ज़िंदा है। मुझे एक पल की भी सुध नहीं रही और मैं उसके नज़दीक पहुंच गया... मैंने कहा सफ़ीना- उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फिर कहा सफ़ीना सुनो... वो मेरी तरफ मुड़ी, मुझे देखा और बोली, क्या...? मैंने देखा कि उसके दाएं गाल पर तिल था, जो सफ़ीना के नहीं था। मैंने कहा, सॉरी...आपका चेहरा मेरे किसी ख़ास से बहुत मिलता है। उसने मुझे शक भरी निगाहों से देखा, जैसे मैं कोई लफंगा हूं और उसे छेड़ रहा हूं... फिर बिना कुछ बोले मुड़ी और चली गई। एक दो दिन बाद वो फिर राशन की दुकान पर मिली । मैं उसे देख कर वहीं खड़ा का खड़ा उसे देखता रहा। उसकी शक्ल सफ़ीना से इस हद तक मिलती थी कि अगर उसके गाल पर तिल ना हो तो कोई दोनों में फर्क ही नहीं कर सकता।
मुझे एहसास हुआ कि उसने उसको देखते हुए मुझे पकड़ लिया है,
मैं नज़र चुरा कर निकल ही रहा था कि उसने मेरे पीछे से कहा "सुनो, उस दिन किस नाम से बुला रहे थे मुझे, क्या कोई बहुत ख़ास थी?"
अब मैं समझ नहीं पा रहा था कि उससे क्या बात करूं ? क्या कहूं ?
उसका भी ग़म मेरे ग़म जैसा ही था। वह भानगढ़ गांव से आई थी, गौरी नाम था। वो भी मेरी ही तरह विस्थापित थी, अपने घर - गांव से बिछड़ कर यहां राजधानी में आई थी। हम दोनों के बीच खूब बातें होने लगी, वो अपने किस्से सुनाती और मैं अपने। उसने बताया कि वो अपने गांव के एक लड़के से प्यार करती थी । घर वाले शादी के लिए राज़ी नहीं थे। भाग कर शादी करने का प्लान बनाया था दोनों ने, लेकिन तभी इनका पूरा का पूरा गांव विस्थापित हो गया। गौरी की कहानी फिर कभी... अभी तो हम दोनों को हमारा ग़म- जिंदगी बांटने के लिए एक दूसरे का साथ मिल गया था। लेकिन हमारे वतन की मिट्टी की खुशबू यहां राजधानी में नहीं आती थी।