रविवार, 3 नवंबर 2019

एक जैसा ग़म (दर्द विस्थापन का)

जब भी कोई मुझसे सवाल पूछता है कि मैं कौन और कहां से आया हूं, मतलब कहां का रहने वाला हूं तो यह सवाल मुझे बहुत अखरता है।
अपनी मिट्टी अपने गांव को छोड़ना कैसा होता है... यह मैं ही जानता हूं। बेशक मैं जहां रहता था, वहां आए दिन नारे लगते थे, पथराव होते थे, गोलियों की आवाज़ें आती थी। लेकिन हमें आदत थी।
घाटी में जब बर्फ़ पडती थी, तो ऐसा लगता था कि आसमान से फ़रिश्ते सफेद फूल बरसा रहे हैं। लेकिन शायद उनके कानों तक गोलियों की आवाज नहीं पहुंचती थी... अगर पहुंचती तो वह ज़रूर कुछ करते ।

वो हमारा घर था। सच में जन्नत कहीं थी तो वहीं थी। 20 साल का था, जब पहली बार किसी लड़की को देखा और देखता रहा... सेब जैसे उसके गाल, लंबे गोल चेहरे पर उसकी बड़ी बड़ी आंखें... इतनी खूबसूरत लगती थी कि जैसे किसी चित्रकार ने अपनी ख़ास पेंसिल से उन्हें बनाया हो । इससे खूबसूरत आखें दुनिया में थी ही नहीं और उसकी आंखों पर वह एक बड़ा सा गोल चश्मा, जो पूरी शिद्दत से उसकी आंखों की रख़वाली करता था एक पहरेदार की तरह, खूबसूरती इतनी की घाटी की बर्फ भी उसके आगे सांवली सी नज़र आती थी ।
उसे  देखते ही मेरे दिल में एम्बुलेंस की लाल बत्ती लुप-लुप करके जल उठती।  
पहली बार उसे प्रोफ़ेसर सिद्दीकी के यहां देखा था, वो अक्सर जूनियर्स की कापियां जांचने के लिए मुझे बुला लिया करते थे। 
 अब तो रोज़ किसी न किसी बहाने से मैं सही वक्त पर पहुंच जाता था। थोड़ी देर उसे देखता, ट्यूशन खत्म होने का इंतजार करता और फिर उसे देख कर घर वापिस,
रात भर तकिए को सीने से लगा कर सोता था। धीरे धीरे सफ़ीना को भी मैं पसंद आने लगा था, उसकी पढाई में मदद करता था। शायद प्रोफ़ेसर साहब को भी अंदाज़ा हो  गया था कि क्यों मैं रोज़ उनके घर पहुंच जाता हूं,पर प्रोफ़ेसर साहब इस बात को नज़रंदाज़ कर देते थे। धीरे-धीरे हम दोनों ने ही बाहर मिलना शुरू कर दिया, लेकिन एक दिन प्रोफ़ेसर साहब ने सफ़ीना और मेरी नज़दीकी को देखते हुए मुझे समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि, हम दोनों के मज़हब अलग-अलग हैं और घाटी में अगर हमारी नज़दीकी की भनक किसी को भी पड़ गई तो इसका कुछ भी अंजाम हो सकता है...अभी माहौल ठीक नहीं है, मुझे इस बारे में सोचना चाहिए। मैंने उनसे कहा कि सफ़ीना और मैं एक दूसरे के सिर्फ अच्छे दोस्त थे।
वो इज़हार करने से शायद डरती थी और मैं उससे डरता था कि कहीं वो मुझे ग़लत अर्थों में ना ले ले।

हवाएं गर्म हो रही थी और हमारे दिलों की धड़कनें भी ।
हमारी बिरादरी के लिए फरमान जारी हो गया था कि हमें यहां से जाना होगा। आए दिन पत्थरबाज़ी और नारों से हम भी तंग आ गए थे, लेकिन वहां से जाना नहीं चाहते थे। आए दिन खबरें आती थी कि आज इसे घर में घुस कर मार दिया, आज उसे मार दिया । माँ बताती थी कि उस की बीवी तो पेट से थी, उसका छोटा बच्चा था और ना जाने क्या क्या... पर हमें परवाह नहीं थी। हम तो अपनी तय जगह पर मिलने के लिए तय वक्त पर पहुंच जाते थे। 
असल में हमें रोज़-रोज़  के शोर की आदत हो गई थी, गोली की आवाज से पता चल जाता था कि किस गन की है और कितनी दूर से चली है।
मैंने रास्ते में कुछ जंगली फूलों का गुलदस्ता बनाया और सोचा कि आज सफ़ीना को बोल दूंगा कि सफ़ीना मैं अपने रोज़-रोज़ मिलने वाले इस रिश्ते को एक नाम देना चाहता हूं। वो जैसे ही मेरे सामने आई मैं वो सब भूल गया जो मैंने तैयार किया था। मैं किसी और ही दुनिया में था, मैंने फूलों से भरा हुआ गुलदस्ता उसके आगे किया और कहा "हम रोज मिलते हैं हर हाल में, हम दोनों को एक दूसरे का साथ पसंद है, मैं... मैं तुमसे प्यार करता हूं सफ़ीना... और सफ़ीना एक दम से मेरी बाँहों में आ गिरी, एकदम निढाल होकर, मैं हम दोनों को सम्भाल नहीं पाया और हम दोनों गिर गए। वो मेरे ऊपर थी और मैं नीचे, मेरा हाथ उसकी पीठ पर गया तो उसकी पीठ गीली थी। अचानक मुझे एहसास हुआ कि आसपास गोलियां चल रहीं थी और एक गोली मेरे दाहिने कंधे पर भी लगी थी।अब  एहसास हुआ था। सफ़ीना बेहोश हो गई थी, मैं उसे साथ लेकर एक पेड़ की आढ़ में छिप गया। सफ़ीना को जगाते-जगाते मैं पता नहीं कब बेहोश हो गया ।

होश आया तो मैं एक ट्रक की लॉरी में घर के कुछ सामान, मां और दोस्तों के साथ था। कुछ पड़ोस के लोग भी उसी लॉरी में थे। दोस्तों ने बताया कि सफ़ीना नहीं बची और जो थोड़ा बहुत सामान था वह लेकर उन्होंने मुझे और माँ को साथ ले लिया। मैंने वापिस जाने की बहुत कोशिश की लेकिन दोस्तों ने जाने नहीं दिया, फिर घर में मेरी अकेली माँ का मैं ही तो एक सहारा था।  अगर मैं भी चला जाता तो परदेस में माँ का ख्याल कौन रखता। 
हम दिल्ली आए एक पुल के नीचे झुग्गी डाली और रहने लगे। सफ़ीना की याद मुझे बार-बार वहीं अपने पास बुलाती थी, लेकिन पता था कि सफ़ीना अब वहां नहीं है।

फिर 11 महीने बाद साल 1951में सफीना मुझे दिखाई दी, वहीं पास ही की एक झोपड़ी में। 
मुझे यकीन नहीं हुआ कि मेरी सफ़ीना ज़िंदा है। मुझे एक पल की भी सुध नहीं रही और मैं उसके नज़दीक पहुंच गया... मैंने कहा सफ़ीना- उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फिर कहा सफ़ीना सुनो... वो मेरी तरफ मुड़ी, मुझे देखा और बोली, क्या...?  मैंने देखा कि उसके दाएं गाल पर तिल था, जो सफ़ीना के नहीं था। मैंने कहा, सॉरी...आपका चेहरा मेरे किसी ख़ास से बहुत मिलता है। उसने मुझे शक भरी निगाहों से देखा, जैसे मैं कोई लफंगा हूं और उसे छेड़ रहा हूं... फिर बिना कुछ बोले मुड़ी और चली गई। एक दो दिन बाद वो फिर राशन की दुकान पर मिली ।  मैं उसे देख कर वहीं खड़ा का खड़ा उसे  देखता रहा। उसकी शक्ल सफ़ीना से इस हद तक मिलती थी कि अगर उसके गाल पर तिल ना हो तो कोई दोनों में फर्क ही नहीं कर सकता।
मुझे एहसास हुआ कि उसने उसको देखते हुए मुझे पकड़ लिया है,
 मैं नज़र चुरा कर निकल ही रहा था कि उसने मेरे पीछे से कहा "सुनो, उस दिन किस नाम से बुला रहे थे मुझे, क्या कोई बहुत ख़ास थी?" 
अब मैं समझ नहीं पा रहा था कि उससे क्या बात करूं ? क्या कहूं ?

उसका भी ग़म मेरे ग़म जैसा ही था। वह भानगढ़ गांव से आई थी, गौरी नाम था। वो भी मेरी ही तरह विस्थापित थी, अपने घर - गांव से बिछड़ कर यहां राजधानी में आई थी। हम दोनों के बीच खूब बातें होने लगी, वो अपने किस्से सुनाती और मैं अपने। उसने बताया कि वो अपने गांव के एक लड़के से प्यार करती थी । घर वाले शादी के लिए राज़ी नहीं थे। भाग कर शादी करने का प्लान बनाया था दोनों ने, लेकिन तभी इनका पूरा का पूरा गांव विस्थापित हो गया। गौरी की कहानी फिर कभी... अभी तो हम दोनों को हमारा ग़म- जिंदगी बांटने के लिए एक दूसरे का साथ मिल गया था। लेकिन हमारे वतन की मिट्टी की खुशबू यहां राजधानी में नहीं आती थी।

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

मधु

उसके बाप की गांव में एक दुकान थी । पश्चिम बंगाल में हमारा एक छोटा सा गांव हुगली, इस छोटे से गांव में हमारी एक छोटी सी दुनिया। बचपन से मैं और मधु साथ खेलते हुए बड़े हुए थे, मधु का बाप उसे मेरे साथ कहीं भी जाने से नहीं रोकता था ।
वह उम्र में मुझसे एक साल बड़ी थी और दो क्लास आगे, मैं दसवीं में था और वह बारहवीं में।
वह कई बार मुझे चिढ़ाने के लिए बोलती "देख मेरा बापू तेरे से मेरी शादी नहीं करेगा", "तो मैं पूंछता क्यों नहीं कराएगा" ?
वो कहती "क्योंकि तू कीचढ़ सा काला और मैं नदी के जल सी साफ, ऊपर से तू मेरे से एक साल छोटा, कक्षा में दो साल पीछे...इस पानी की तरह मुझे भी बहुत दूर... सागर से मिलने जाना है और सागर में ही समा जाना है, भूपा...तेरा मेरा मेल कहां" उसके इस मज़ाक पर मैं गुस्से में उससे पूंछता तेरे बाप की छोड़, "तू बोल तुझको क्या करना है" तो मधु कहती, 'अरे बापू के आगे मेरी क्या चलेगी अब मां के मरने के बाद बापू ने हीं तो पाला है मुझे, जो उनका फैसला वह मेरा फैसला' और मैं जैसे ही नाराज होकर जाने को होता, वह मेरा हाथ पकड़ लेती लेकिन मैं हाथ छुड़ाकर चल देता, तो सामने मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती और कहती 'अरे भूपेश बाबू, मेरा सागर तो तुम हो' आंख मारती और गले में हाथ डालकर पूरे जंगल की सैर करती।
 हम दोनों नदी के जल में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर घंटों लेटे रहते, हमारे आसपास पूरे बदन को छोटी-छोटी मछलियां आकर छूती।
अगर कोई मछली उसे छूती, तो मुझे पता चल जाता और अगर कोई मछली मुझे कहीं भी छूती, तो उसे पता चल जाता।

उसको कटहल बहुत पसंद था, इसलिए चाचा के घर से पका हुआ कटहल चुपचाप पेड़ से चुरा कर लाता और हम दोनों जंगल में बड़े मज़े से कटहल खाते। मैं उसे घुठली के ऊपर का गूदा निकाल कर देता और वह अपने हाथों से खुद भी खाती, मुझे भी खिलाती।
फिर शाम को साइकिल से अपने बाप की दुकान पर जाती और उसका दुकान में हाथ बटाती।
हम दोनों के साथ होने से उसके बाप को कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन उसके बाप की परेशानी का कारण था मेरी लापरवाही।
 मुझे पढ़ने में मजा नहीं आता था। पहले मैं और मधु एक ही कक्षा में थे, लेकिन मैं दो बार फेल हो गया। अब जंगल में वह मुझे पढ़ाती भी थी, इसलिए मैं पिछली तीन कक्षाओं में पास हो गया, लेकिन अब मैं भी मेहनत करता था, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मधु का मज़ाक कभी सच हो...उसका समुद्र तो सिर्फ मैं हूं। लेकिन मधु की सौतेली मां और चाचा को मैं पसंद नहीं था, इसलिए नहीं क्योंकि मैं नाकारा हूं बल्कि इसलिए क्योंकि मैं मधु की खुशी था और मधु की खुशी उसकी किस्मत को भी बर्दाश्त नहीं थी ।

मैं जामुन के पेड़ के पास उसका रोज़ इंतज़ार करता था और फिर हम साथ में स्कूल जाते, अभी परीक्षाएं चल रही थी।
उस दिन मैंने बहुत देर तक उसका इंतजार किया लेकिन जब वो नहीं आई तो मैंने उसके घर की ओर दौड़ लगा दी।
उसके घर पहुंचा... उसके दरवाजे के बाहर सफेद कफ़न पड़ा था और वो एकदम टूटी हुई बिना एक आंसू के जमीन पर बैठी बिना पलक झपके उस कफन को देख रही थी। मुझे एहसास हो गया था कि यह मधु का बाप है, मैं उसके पास पहुंचा और जैसे ही उसके बगल में बैठा तो तुरंत उसने मुझे कस कर पकड़ लिया और अब तक जो आंखें सूखी थी उन में बाढ़ आ गई थी, अपने सारे आंसू मेरी छाती से लगाए अपने चेहरे से मेरे सीने में उतार दिये।
अरे कल ही तो मधु के बाप ने हम दोनों को आशीर्वाद दिया था, मेरे से बोला अगर तुझे मधु चाहिए तो जल्दी से काबिल हो जा, मधु कल ही तेरी होगी और अगले दिन तो वह खुद ही इस दुनिया का नहीं रहा ।
मधु की 12वीं नहीं हो पाई लेकिन मैं बराबर परीक्षा देने गया जिस दिन मधु का बाप मरा वह एग्जाम मैंने फिर से दिया, मन में एक अजीब सा डर था कि अभी और भी कुछ भयानक होगा। मैंने काम करना शुरू किया मोटर मैकेनिक का, अच्छा पैसा मिल रहा था ।
एक दिन उस्मान आया और उसने बताया कि मधु जा रही है... मैंने पूंछा कहां? वो बोला उसकी शादी पक्की हो गई है। मैं दौड़ता हुआ उसके घर पहुंचा तो उसकी मां बोली...तू कोई काम धाम तो करता नहीं है, तुझसे क्यों लड़की बिहाएँगे? पता चला मधु की शादी और विदाई दोनों ही परसों है। लड़का दिल्ली में रहता है, मैंने कहा बात करने दो एक बार मधु से। मधु की कमरे के अंदर से ही बाहर बरामदे में आवाज आई - चला जा क्यों मेरे पीछे मरना चाहता है, जो मेरी मां का फैसला है वही मेरा।
 आवाज मधु की थी, शब्द भी उसके थे लेकिन इस बार मैं उससे नाराज नहीं था। मैं उसको खो दूंगा इस बात से मेरे पूरे शरीर में सिहरन उठ गई थी।
 मैं उसके कमरे की तरफ बढ़ा कि नहीं, मधु मैं तेरा समुद्र हूं... तुझ को मुझ में मिलना है... किसी और में नहीं। मैंने उसके चाचा को एक तरफ धकेला और उसके दरवाजे को पीटने लगा, बाहर से आवाज लगा रहा था, मधु... मधु... और जैसे ही उसने दरवाजा खोला पीछे से जोरदार झटका मेरे सिर पर लगा, मैं सीधा खड़ा का खड़ा पीठ के बल खुली आंखों से जमीन पर गिर गया। मधु रो रही थी, बुरी तरह चीख रही थी...और उसे देखते देखते मेरी आंखें बंद हो गई।
 जब आंख खुली तो पहला चेहरा मेरे सामने मेरी मां का था, मां ने बताया कि मैं पिछले तीन दिनों से बेहोश था।
उसी रात उन लोगों ने मधु को दिल्ली भेज दिया, असलम ने बताया की मधु के बाप को उसकी सौतेली मां और चाचा ने मिलकर मारा था क्योंकि उसकी मां और चाचा का चक्कर चल रहा था। दूसरा इन दोनों ने चुपचाप उसके सारे खेत, मकान, दुकान सब बेच दिया और दोनों गांव से फरार होने वाले थे। उस रात इन दोनों को मधु के बाप ने साथ में पकड़ लिया, तो इन दोनों ने उसको मार दिया, अब दोनों गायब हैं। सच कहूं तो इस बात से मुझे कोई मतलब नहीं था। मधु की शादी हो गई थी और वह मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी। मैं मधु को पा नहीं सका लेकिन उसका सपना मुझे सच करना था। काबिल बनना था कि अगर कभी जिंदगी में मिली तो उसको गर्व होगा कि मैं उसके सपने के साथ जी रहा हूं। मैं गांव में अब और रह नहीं सकता था, यह बात मेरा बड़ा भाई भी समझता था। इसलिए उसने मुझे कलकत्ता भेज दिया, पढ़ाई के साथ यहीं काम भी करता था । कलकत्ता में 12वीं के बाद दिल्ली चलाया आया और टैक्सी चलानी शुरू कर दी। दिल में था कि शायद वह मिल जाएगी, कभी किसी सवारी की तरह ही सही।
दिल्ली में तीन साल काम करके मैंने एक खुद का छोटा सा मकान और खुद की गाड़ी ले ली, हालांकि इस सब के लिए लोन भी लिया था लेकिन यह सुकून था कि अपना है ।
एक दिन रात को सड़क किनारे हाथ में बच्चे को लिए एक औरत मेरी गाड़ी के आगे आ गई और मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं था। कितनी कमजोर हो गई थी वह, मैंने उसे संभाला... अपनी बाहों में लेकर अपनी कार में बिठाना चाहा तो उसने मुझे झटक दिया, जैसे मुझे पहचाना ही नहीं। मैंने उसे पकड़कर हिलाया और कहा 'मैं हूं मधु तुम्हारा भूपा', उसने नजर उठाई और फिर से उसकी बरसों से सूखी आंखों में बाढ़ आ गई। उसे अपने साथ घर लाया, उसने बताया कि किस तरह से उसे दिल्ली लाया गया और जहां उसको किसी सेठ के यहां बेच दिया गया... उसने मधु के साथ क्या-क्या नहीं किया, इसके बच्चा हुआ तो इसका बच्चा भी गिरवा दिया और मधु को किसी और को बेच दिया। इन तीन सालों में मधु को तीन बार बेचा गया और खुद को बचाते हुए वह किस्मत से मुझ से टकरा गई। वो इतनी डरी हुई थी कि डर से कांप रही थी... मैंने उसका हाथ पकड़ा हुआ था, उसने मुझे कस कर सीने से लगा लिया तकरीबन आधे घंटे तक। 
उसने कहा, भूपा मैं अपने समुन्दर में मिलना चाहती हूं। उसकी गोद में जो बच्चा था, वो बच्चा नहीं गुड़िया थी। जिसे शायद उसने अपना ग़म बांटने के लिए अपने सीने से लगा रखा था और इस घर में आने के बाद उसने एक बार भी उस चीज़ के बारे में नहीं पूछा।

हम दोनों की शादी को 2 साल हो गए, पिछले हफ्ते ही उसने हमारी बेटी को जन्म दिया और अस्पताल में मुझसे अपने आखिरी शब्द कहे... 
"मैं अपने समुद्र में मिल गई भूपा"

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2019

अब तुम से क्या शिकायत करूं

सोचा कुछ शिकायतें करूँ तुम से
कुछ दूर शिकायत के सफर पर
ऐहसास हुआ

कुछ बने- कुछ टूटे ख्वाब न हों
कुछ किससे जीत और हार न हों
किसी का प्यार और प्यार की मार न हो
कुछ खास और कुछ बकवास यार न हों
कभी खुशी कभी ग़म की बौछार न हो
कभी उदासी और कभी मुस्कान न हो
तो ज़िन्दगी क्या हो...? और कैसी हो...?

ऐ ज़िन्दगी, तुम जो हो, जैसी हो
बड़ी खूबसूरत, बड़ी हसीन हो,

चमन चतुर

  चमन चतुर Synopsis चमन और चतुर दोनों बहुत गहरे दोस्त हैं, और दोनों ही एक्टर बनना चाहते हैं. चमन और चतुर जहां भी जाते हैं, वहां कुछ न कु...