बचपन के साथ एक दिन
कभी कभी कोई वक्त ऐसा बीतता है की समझ ही नही आता कि किस तरह से इसका व्याख्यान किया जाए।
कभी कभी कोई वक्त ऐसा बीतता है की समझ ही नही आता कि किस तरह से इसका व्याख्यान किया जाए।
शायद बहुत मुश्किल होगा 12 अप्रेल 2015 के उस दिन को जैसा का तैसा बयां करना और ये भी शायद पहली बार है कि मैं अपने जीवन का एक दिन अपने इस ब्लॉग पर लिख रहा हूँ।
आज कुछ ऐसा सीखा जिसके बारे में हम जानते तो है पर कभी भी हमारा मन संतोष नही कर पता है और हम हमेशा शिकायत करते रहते है की ये नही है और वो नही है। आज एक दोस्त के कहने पर एक एन.जी.ओ. के द्वारा संचालित कार्यक्रम की मेज़बानी करने का मौका मिला कार्यक्रम गरीब छोटे छोटे और मासूम बच्चों के लिए था। ऐसा कार्यक्रम पहली बार होस्ट करने का मौका मिला न कोई स्क्रिप्ट थी और नहीं कोई पहले से तैयारी। डर था की छोटे बच्चे है क्या करेंगे और कैसे करेंगे। आज कुछ नए दोस्त भी बने कुछ नए रिश्ते भी सच में मुश्किल है ये दिन जस का तस लिखना इसलिए कविता का सहरा ले रहा हूँ।
नन्हे परिंदों ने सीखा दिया
आज कुछ ऐसे नन्हे परिंदों से मिला
जिन्होंने मझे कुछ नया सिख दिया
किसी ने अपना भाई तो
किसी ने दोस्त बना लिया
शिकायत तो रहती है हम सभी को जिंदगी से
पर अभावों में पली उस हंसी ने दिल चुरा लिया
उन नन्हे लव्जो से निकले नादान सवालों ने
एक बार फिर बचपन से मिला दिया
जिन बस्तिओं से हम नाक बंद करके निकलते हैं
नन्हे परिंदों ने सीखा दिया
आज कुछ ऐसे नन्हे परिंदों से मिला
जिन्होंने मझे कुछ नया सिख दिया
किसी ने अपना भाई तो
किसी ने दोस्त बना लिया
शिकायत तो रहती है हम सभी को जिंदगी से
पर अभावों में पली उस हंसी ने दिल चुरा लिया
उन नन्हे लव्जो से निकले नादान सवालों ने
एक बार फिर बचपन से मिला दिया
जिन बस्तिओं से हम नाक बंद करके निकलते हैं
वहीँ कहीं ये बचपन के गुल खिलते हैं
ये उनकी बेबाकी ने समझा दिया
यूँ तो पहुंचे थे हम बचपन की मेज़बानी को
मगर बच्चों ने हमको भी पानी पिला दिया
न वापसी का मन उनका था न हमारा था
पर समय ने अपना रंग दिखा दिया
इन नन्हे परिंदों ने हम को हंसना सीखा दिया।