शुक्रवार, 1 मई 2015

अफसोस

अफसोस

कभी-कभी आप चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते हो शायद आप में घर परिवार समाज व दोस्तों का डर होता है कि कहीं वो हमारा मज़ाक न बनाए कहीं वो कुछ गलत न समझें या हमें डांट न पड़ जाऐ।
ये कहानी एक कचरा बीनने वाले लड़के की है। अब तो उसका नाम भी याद नहीं है, शायद उसका नाम राजू था । मैं दिल्ली में जिस मकान में रहता था उसके पीछे एक पार्क था और वहीं पार्क के बहार लोग कचरा फेंका करते थे। क्योंकि मैं बचपन से ही कसरत का शौक़ीन था इसलिए रोज सुबह जल्दी उठकर पार्क में व्यायाम करने चला जाता था। वहां रोज एक लड़के को कचरे में से कुछ बीनते हुए देखता था। पहले कुछ दिन तो उससे घृर्णा होती थी कि कैसा लड़का है इसे कचरे के ढैर से बदबू नहीं आती जो रोज सुबह यहां कचरा दर्शन के लिए चला आता है पर सारा दिन पता नहीं क्यों उसका ही चेहरा मेरी नज़रों के समाने घूमता रहता था, शायद मेरा दिल जानता था की ज़रुर उसकी कोई ना कोई मजबूरी होगी तभी तो वो रोज़ इस कचरे में उतरता और पता नहीं क्या ढूंढता था।  ऐसी भरी सर्दी में जहां मैं अपने गर्म कपड़ों में एक दम ढका होता था वहीं वो सिर्फ एक पतली सी शर्ट और आधी फटी पेंट  में बुरी तरह से कांपते हुए अपने काम में लगा रहता था। वो मुझ से उर्म में बड़ा था, मैं तो शायद दस साल का था और वो पंद्रह या सोलह साल का रहा होगा। एक दिन सोचा कि उसे अपने पास बुलाऊं उससे पूछूं की क्या यार तुम सुबह-सुबह ये कैसा काम करते हो ?
नहा लिया करो यार  तुम्हारी मम्मी मारती नहीं क्या तुम्हें  ? मेरी मम्मी तो मुझे रोज़ जबरदस्ती नेहला देती हैं, पर उससे डर भी लगता था कि कहीं वो अपने कचरे के थैले में मुझे डाल के भाग गया तो.…? लेकिन उसकी आंखों में बस दर्द दिखाई देता था। जब भी उसकी आंखें देखता था उनमें बस एक दर्द भरा सन्नाटा दिखाई देता था। उसकी आंखों में कोई चमक कोई हरकत नहीं दिखाई देती थी। एक दिन सोचा की उससे बात की जाए और कुछ रूपये देकर उसकी मदद करने की कोशिश की जाए पर फिर मन में ख़्याल आया की कहीं किसी दोस्त ने देख लिया तो सब मेरा मजा़क उड़ाएंगे, कचरे वाले का दोस्त बोलेंगे और घर वालों को पता चला तो बस खटिया खड़ी और बिस्तर गोल कहीं मम्मी डेडी पिटाई न कर दें और अगर घर से निकाल कर ये बोल दिया की जाओ और उसी दोस्त के साथ रहो, तो फिर डॉक्टर, इंजिनियर, आई.ए.एस, फौजी और पुलिस वाला कैसे बन पाउंगा। लेकिन फिर रात को सोते समय एक प्लान बनाया सोचा सुबह रोज़ के मुकाबले जल्दी उठ जाउंगा और उस के पास जाकर उसे रूपये देकर बोलूंगा बड़े भाई लो ये रखो और अपने लिये कपड़े किताबें और चॉकलेट खरीद लेना और प्लीज़ यार ये काम छोड़ देना। लेकिन अचानक मुझे एक बहुत ही बड़ी सच्चाई का पता चला की मैं कोई नौकरी करता हूं क्या…?  जो मेरे पास रूपये होंगे। अब उसे पैसे देने लिए कहां से लाऊँ सोचा कि डैडी से मांग लूं लेकिन अब आधी रात को उनको जगाया तो डाटेंगे और अगर पुंछ लिया कि क्यों चाहिए तो क्या जवाब दुंगा, इसलिए मैंने सुबह चार बजे उठ कर दीवार की कील पर टंगी डेडी की शर्ट कि जेब में एक मेज पर चढ़ कर हाथ डाला तो जल्दी-जल्दी में सिर्फ एक पचास रूपये का नोट हाथ में आया। ये मेरी सोच से बहुत ज़्यादा रूपये थे क्योंकि मैं तो सिर्फ दस रूपये देने वाला था। अरे मुझे तो बहुत रोने पर भी डैडी एक रूपया ही देते थे और उस पर भी एक डायलाॅग और मार देते थे कि "जा मेरे बच्चे ऐश कर.… " और मैं तो बिना उसके बोले उसे पचास रूपये देने जा रहा था लेकिन मुझे पता था कि मैंने चोरी की है जो कि गलत बात है, इसलिए डर के मारे मेरे पैर भी कांप रहे थे। मैं दौड़ता-दौड़ता पार्क में गया और उस बैंच पर से पार्क के बहार टक-टकी लगाकर देखता रहा क्योंकि मैं पार्क में जल्दी आगया था। अभी तो पार्क में बहुत ही ज़्यादा ठंड थी एक बार सोचा कि वापस चला जाऊं पर फिर मन किया की रहने दो अभी इंतज़ार करता हूं और डर था कि अगर घर पर चोरी का पता चल गया होगा तो सब बस मुझे पीटने के इंतज़ार में होंगे। मुझे पार्क में बैठे-बैठे सात बज गये थे पर वो लड़का अभी तक नहीं आया और अब मेरे पार्क से जाने का समय हो गया था और जैसे ही मैं जाने को हुआ.…  अचानक वो लड़का दिखाई दिया। मैं तपाक से उस के पास जा पहुंचा और सीधे उससे एक सवाल कर दिया कि.....  तुम ये काम क्यों करते हो.…   ? उसने मेरी तरफ देखा और बोला छोटे घर जा अगर  तेरी मम्मी ने देख लिया तो तेरी पिटाई हो जाएगी! मैंने कहा की नहीें होगी, पहले मेरे सवाल का जवाब दो ? उसने मुझे डराने के लिए कहा  'देख ये मेेरा कचरे का थैला तुझे एक सैकेण्ड़ के अंदर इस में डाल कर लेे जाउंगा। 'मुझे डर लगा और दो कदम पीछे हट कर बोला ये कचरे का थैला है बच्चे का नहीं और मैं लड़का हुँ कोई कचरा नहीं जो तुम मुझे इस थैले में डाल लोगे', दिमाग नाम की एक चीज़ होती है भाई जो शायद तुम्हारे पास कम है। मेरी ये बात सुन कर उसकी हंसी छूट गई और अचानक हंसना बंद करके र्दद भरी आवाज़ में बोला दिमाग की नहीं, मेरे पास किस्मत की भी कमी है। फिर बोला देख छोटे मुझ से ज्यादा बात मत कर अगर किसी शरीफ अंकल-अंटी नें देख लिया तो तुझे भी चोर और कचरा बीनने वाले का दोस्त समझेंगे।
मैंने उससे पूछा की क्या तुम्हें सर्दी नहीं लगती जो एक शर्ट में ही घूमते हो..?
कुछ देर तक तो वो चुप रहा !
फिर बोला इस इंसानों की दुनिया में मैं इंसान नहीं हूं ।
मैंने पूंछा तो फिर क्या हो तुम............?
वो बोला मुझे नहीें पता छोटे लेकिन बस कुछ ऐसा हूं जिससे लोग बिना किसी अपराध के घृणा करते हैं। बिना किसी चोरी के चोर समझते हैं ।मैंने उससे सवाल किया की क्या तुम हमेशा ऐसी ही बातें करते हो, क्योंकी तुम्हारी एक भी बात मेरे समझ में नहीं आती है। उसने कहा...तू अभी बहुत छोटा है अभी मेरे हालात नहीं समझेगा, तू अच्छा है और मन का सच्चा भी है।
मुझे मन में बहुत ख़ुशी हुई कि किसी ने मेरी तारीफ की थी। लेकिन फिर अचानक मुझे याद आया की मेरे पास मेरी पेंट की जेब में कुछ है जो मैंने अपनी मुठ्ठी में कस कर पकड़ रख रखा है। लेकिन पचास रुपये अब देने की हिम्मत नहीें हुई। मन में डर था की कहीं घर पर पिटाई न हो जाए और सब लोग बोलेंगे की मैंने एक कचरा बीनने वाले से बात की।
उसको ठिठुरता देख कर मन में ख्याल आया की अपनी जैकेट उसे दे दूं पर फिर मम्मी डांटेगी और मेरे पास भी तो एक जैकेट कम हो जाएगी और इस विचार से उसे कुछ भी नहीं दिया। लेकिन अब मैंने उससे एक ऐसा सवाल कर दिया जिसने उसे शायद अन्तरहृदय तक चीर दिया। क्या तुम अनाथ हो…? अगर अनाथ हो तो अनाथ आश्रम में जा कर रह लो।  उसकी आंखों में आंसू आ गये और वो वहां से बिना कुछ कहे चुप चाप चला गया।
अब अचानक याद आया की आठ बज चुके हैं और मुझे स्कूल जाने में देर हो गई है।  मैं दौड़ा-दौड़ा घर गया तो देखा के मम्मी डैडी अभी सो रहे थे। मैंने डैडी को उठाने की कोशिश की और बोला उठोे स्कूल जाना है और डैडी आप को भी आॅफिस के लिए देर हो रही है। डैडी नींद में ही बोले मेरे बच्चे आज संडे है, ये सुन कर मेरी सांस में सांस आई और अब मेरे पास एक मौका था रुपये वापस वहीं डालने का। मैंने अपनी मेज फिर से दीवार की तरफ सरकाई और मेज पर चढ़ कर डैडी की शर्ट की जेब में रुपये वापस डाल दिए। लेकिन दिल में अभी भी कहीं ना कहीं उसके लिए एक अफसोस था की अगर उसको वो पचास रुपये दे देता तो मुझे ज्यादा ख़ुशी होती क्योंकि गलती पर तो रोज़ ही डांट पड़ती है। लेकिन अच्छे काम  करने के लिए डांट पड़ती, तो अंतर्मन में एक ख़ुशी तो ज़रूर होती।


सोमवार, 13 अप्रैल 2015

बचपन के साथ एक दिन

 बचपन के साथ एक दिन 
कभी कभी  कोई  वक्त ऐसा  बीतता है की समझ ही नही आता कि किस तरह से इसका व्याख्यान किया जाए।
शायद बहुत मुश्किल होगा 12 अप्रेल 2015 के उस दिन को जैसा का तैसा बयां करना और ये भी शायद पहली बार है कि मैं अपने जीवन का एक दिन अपने इस ब्लॉग पर लिख रहा हूँ। 
आज कुछ ऐसा सीखा जिसके बारे में हम जानते तो है पर कभी भी हमारा मन संतोष नही कर पता है और हम हमेशा  शिकायत करते रहते है की ये नही है और वो नही है। आज एक दोस्त के कहने पर एक एन.जी.ओ. के द्वारा संचालित कार्यक्रम की मेज़बानी करने का मौका मिला कार्यक्रम गरीब छोटे छोटे और मासूम बच्चों के लिए था।  ऐसा कार्यक्रम पहली बार होस्ट करने का मौका मिला न कोई स्क्रिप्ट थी और नहीं कोई पहले से तैयारी। डर  था की छोटे बच्चे है क्या करेंगे और कैसे करेंगे। आज कुछ नए दोस्त भी बने कुछ नए रिश्ते भी सच में मुश्किल है ये दिन जस का तस लिखना इसलिए कविता का सहरा ले रहा हूँ।


नन्हे परिंदों ने सीखा दिया 
आज कुछ ऐसे नन्हे परिंदों से मिला
जिन्होंने मझे कुछ नया सिख दिया
किसी ने अपना भाई तो
किसी ने दोस्त बना लिया
शिकायत तो रहती है हम सभी को जिंदगी से
पर अभावों में पली उस हंसी ने दिल चुरा लिया
उन नन्हे लव्जो से निकले नादान सवालों ने
एक बार फिर बचपन से मिला दिया


जिन बस्तिओं से हम नाक बंद करके निकलते हैं 
वहीँ कहीं ये बचपन के गुल खिलते हैं 
अभावों में भी किस तरह खुल कर हँसते हैं 
ये उनकी बेबाकी ने समझा दिया  
यूँ तो पहुंचे थे हम बचपन की मेज़बानी को 
मगर बच्चों ने हमको भी पानी पिला दिया 
न वापसी का मन उनका था न हमारा था 
पर समय ने अपना रंग दिखा दिया 
इन नन्हे परिंदों ने हम को हंसना सीखा दिया। 



मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

याद आती है

याद आती है 

हल्की सी मुस्कुराहट न जाने क्यों आती है 
जब तेरी याद आती है 
सुबह वो तेरे हाथ की चाय की प्याली 
याद आती है 
याद आती है वो तेरे हाथ की रोटी 
याद आती है 
मेरी बचकानी शरारतों पर 
तेरी गुस्से में छिपी मुस्कुराहट 
याद आती है 
घर देर से आने पर तेरी डांट 
याद आती है 
वो तेरा रूठ जाना और मेरा 
मनाना याद आता है 
माँ तेरी बहुत याद आती है 
........BMS

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

षमिताभ

षमिताभ 

आवाज़ और चेहरे के हाव-भाव भारतिय सिनेमा में अभिनय के लिए दोनों ही अति आवश्यक हैं और अगर जुनून हो तो इंसान चाहें जैसा भी हो और प्रकृति ने उसको  कैसा भी बनाया हो, उसकी प्राकृतिक खामी कभी भी  उसको उसके सपनो को अपनी मुठ्ठी में करने से नही रोक पाती है। और किस्मत भी उसके आगे आकर झुकती है और उसकी महनत और लगन से खुश होकर नए नए रस्ते खोलती है। इसी तरह की मोटिवेशन देती है आर.बल्कि द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म षमिताभ। 
कहानी है दो कलाकारों की जो दोनों एक जैसे हैं, आपस में मिलकर ही एक दूसरे को पूरा करते हैं। बिना एक दूसरे के दोनों खत्म हैं बस फर्क है तो पानी और विस्की का। अमिताभ बच्चन साहब और धनुष का दमदार अभिनय पूरी फिल्म में आप को बांधे रखता है और फिल्म का पहला घंटा कब निकल जाता है ये इंटरवल के होने पर पता चलता है। फिल्म कभी भी बोर होने का मौका नही देती। 
BMS
 इश्क फिल्लम,
जुनून फिल्लम ,
दर्द फिल्लम,
है दवा फिल्लम....

चमन चतुर

  चमन चतुर Synopsis चमन और चतुर दोनों बहुत गहरे दोस्त हैं, और दोनों ही एक्टर बनना चाहते हैं. चमन और चतुर जहां भी जाते हैं, वहां कुछ न कु...