कुछ भी नहीं कहते हो
कैसे सहते हो
श्मशान में रहते हो या समाज में रहते हो
सवाल रह-रहकर यही आता है
इन दरिंदों को क्यों सहा जाता है
शायद यह हमें हमारी बहन-बेटियों से ज्यादा प्यारे हैं
इसलिए साल दर साल यह बढ़ते जा रहे हैं
यह दरिंदे कहां से आते हैं
इनके हौसले क्यों इतने बढ़ जाते हैं
खुलेआम यह अपना परचम लहराते हैं
हैवानियत शर्मा जाए पर यह कहां शर्माते हैं
प्रशासन का तो यह मखौल उड़ाते हैं
कौन है जो इन को बचाते हैं
वह कोख़ भी शर्मसार हो जाती है
जो इनको दुनिया में लाती है
क्या यह तादाद में हमसे ज्यादा है
या शक्तिशाली समाज से ज्यादा है
अगर नहीं तो हम क्यों इनसे ख़ौफ खाते हैं
क्यों नहीं इनका कोई इंतज़ाम सजाते हैं
रोश तो सभी जताते हैं
अखबार, टीवी, सड़क सब जगह गुस्सा दिखाते हैं
कानून भी आए दिन बनाते हैं
फिर कहां हम हार जाते हैं
जब तक इनको डराया नहीं जाएगा
इनका हैवान पनपता जाएगा
दरिंदों के खिलाफ जिस दिन
समाज दरिंदगी के वक्त खड़ा हो जाएगा
उस दिन यह सिलसिला थम जाएगा
उसका शोर किसी के कानों में तो आया होगा
बस,खेत, मकान या मैदान
कोई तो चीखें ज़रूर सुन पाया होगा
क्या शक्ल इस दुनिया को हिंदुस्तान दिखाएगा
खुद को कैसे राम, कृष्ण, भगत, गांधी, सुभाष और आजाद का भारत कहलाएगा
दुर्गा काली का खप्पर जब बाहर आएगा
तभी नारी सुरक्षित समाज बन पाएगा
शायद वह सीख हमने कुछ अलग तरह से मानी है
बुरा न देखो, सुनो और कहो
जो गांधी की जुबानी है
इसलिए हर बार बस चुप्पी हमने ठानी है
अरे क्या कहा था बापू ने और क्या हमने उनकी मानी है
बापू ने भी अब सोचा होगा
ऐसा आजाद भारत तो ख्वाब में भी ना देखा होगा
आज अपने ही अत्याचारी हैं
बहन बेटी लाचार बेचारी है
कब भारत का जनमानस जागेगा
जब इनकी हवस का प्रेत हर घर में नाचेगा
कुछ अब करना होगा
इनकी हवस की बलि कब तक चढ़ना होगा
इनकी हवस की बलि कब तक चढ़ना होगा...?