बुधवार, 29 जनवरी 2014

आवश्कता है महिलाओं के प्रति मानसिकता में बदलाव की

       

नारी किसी भी समाज, धर्म, जाति समुदाय का एक बहुत ही मजबूत और अहम हिस्सा है। अगर आसान शब्दों कहें तो नारी एक आधारभूत स्तम्भ है। जी हाँ, नारी वह आधारभूत स्तम्भ है जो एक समाज़, श्रेष्ठ धर्म  श्रेष्ठ सामुदाय के निर्माण में सहायक होती है और  पुरुष जितना भी प्रयास करते है उसके पीछे प्रोत्साहन एक नारी का ही होता है। नारी एक माँ के रूप में जीना सिखाती है।  हमें ज़िंदगी के हर मोड़ पर हमारी परेशानियों से लड़ना और सर उठा कर समाज में चलना सिखाती है। एक बच्चा तो सिर्फ रोने की आवाज़ लेकर संसार में आता है लेकिन उस आवाज़ को एक अर्थ सिर्फ एक नारी ही माता के रूप में देती है। 
हम पुरुषों में बल तो होता है किन्तु उस बल को उसकी सही जगह पर उपयोग करना एक नारी ही बहिन के रूप में रक्षाबंधन का वचन लेकर ही करना सिखाती है और उसी तरह एक नारी ही सुख-दुःख, अमीरी-गरीबी में एक पुरुष का सदेव एक पत्नी और एक दोस्त के रूप में साथ निभाती है।  नारी की इन सभी खूबियों और बलिदान के चलते ही तो उसे भारतीय समाज में एक देवी का स्थान प्राप्त है। 
परन्तु फिर भी जब एक नारी की दयनीय स्थिति दिखती है, जब उस पर अत्यचार होते है, मानसिक और शरीरिक शोषण होता है, कुछ घरों में एक बहिन, बहु, बेटी ये  माँ को उचित स्थान सम्मान प्राप्त नही होता तो नारी को देवी बताने वाली सभी बातें बेमानी और सिर्फ सफ़ेद झूठ सी ही लगती है। 
जो पुरुष किसी नारी के गर्भ से ही जन्म लेता है उसी के अंग का एक हिस्सा होता है और वही  यह कहता है कि नारी को दबा कर रखना चाहिए उन में बुद्धि नही होती, नारी का अपना कोई अस्तित्व नही होता उनसे जाकर यदि कोई ये पूछे के यदि किसी नारी ने माता के रूप में आप को जन्म  दिया होता तो आप का क्या अस्तित्व होता?
वहीँ आश्चर्य ये जन कर  भी होता है कि एक नारी दूसरी नारी के प्रति हीन भावना की शिकार है  और कुछ महिलाएं पुरुषों द्वारा पीटे जाने  को उनके प्यार की शिददत का नाम देती है।  अर्थात फिर तो कोई पत्नी अपने पति से प्यार करती ही नही है, क्योंकि महिलाएं तो अपने पति को पीटती ही नही है। 
आज के वर्तमान समय में जब ऐसी बीमार और जकड़ी हुई मानसिकता का परिचय मिलता है तो आश्चर्य होता है। 
हमें लगता है कि ऐसी सोच मात्र कुछ रूडी वादी बुजुर्गों की ही होगी परन्तु आश्चर्य तो तब होता है जब आज के कुछ युवाओं की भी विचारधारा में ऐसी बीमार सोच का परिचय मिलता है। 
हमें लगता है कि वर्तमान में ही  महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा का ग्राफ बड़ा है लेकिन ऐसा नही है शायद ये सब पहले भी होता था परन्तु ऐसे मामले कुछ कारण वश सामने नही पाते थे। हद तो तब हो जाती है जब दोस्ती, भाई-बहिन और बाप-बेटी जेसे रिश्ते भी शर्मसार होते हुए और सहमे-सहमे से नज़र आते है। 
शायद इस की वजह एक ऐसी मानसिकता है जिस के अंतरगत महिलाओं को बराबरी का नही बल्कि दोयम दर्जे का समझा जाता है, और उसी मानसिकता के चलते कुछ लोग महिलाओं को एक भावनाओं से भरी इंसान kii  जगह उपभोग की कोई वास्तु समझते है, और कुछ लोग तो लड़कियों को बोझ मान कर कन्या भ्रूण हत्या जैसा घोर पाप पर कर बैठते है। परन्तु बिना नारी के हम किसी भी समाज कि कल्पना नही कर सकते। 
नारी प्रकृति के सबसे नजदीक होती है क्योंकि जो काम प्रकृति करती है जीवन देना वही काम करने की शक्ति नारी में होती है। हमें ज़रूरत है तो महिलाओं के प्रति अपनी सोच और विचारधारा बदलने की
हमारे जिन नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है उन के पुनः निर्माण कि आवश्यकता है। 
किसी व्यक्ति को विचार धारा उस के समाज, घर-परिवार स्कूल से ही प्राप्त होती है।
तो विचार धारा बदलाव कि शुरुआत भी घर और स्कूल  से ही होनी चाहिए। यदि घरों में बच्चों को नैतिक मूल्यों और महिलाओं का सम्मान सिखाया जाये विधालय के पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित किया जाये महिलाओं के प्रति छात्रों के विचार जानने का प्रयास किया जाये तो काफी हद तक किसी इंसान को अपराधी बंनने से रोका जा सकता है और एक महिला को शोषित होने से भी बचाया जा सकता है, और हमारा समाज एक बहुत बड़े कलंक से भी बच सकता है। 
             
                                                  जय हिन्द जय भारत। …  छात्र -  पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
                                                                                                      द्वितीय सेमिस्टर 
                                                                                          नाम - भिषाक मोहन शर्मा 

चमन चतुर

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